Saturday, April 10, 2010

जिंदगी से कैसा शिकवा


मन कर रहा है किसी एक जगह जाकर साँस लूँ जहाँ ये जिस्म जान को तकलीफ पहुँचाने वाले रिश्ते न हो मगर तमाम खवाहिशे कहाँ पूरी होती हैं ? सच तो ये था कि मेरा रिश्तों कि सच्चाई पर से ईमान ही उठ गया था और दूसरों से भलाई कि उम्मीद रखनी मैंने कब कि छोड़ रखी है।

कहते है कि जहाँ अँधेरा हो वहां रौशनी कि एक किरण जरुर होती है। हमें अँधेरे कि बजाय रौशनी कि किरण पर नजर रखनी चाहिए।

इन्सान को वसीलो से नवाजना खुदा कि शान है। आप जिस चीज के लिए सर तोड़ कोशिश करते हैं वह आप को न मिल पाए तो जान ले कि वो आपके नसीब में नहीं है, लेकिन कोशिश कभी बेकार नहीं जाती। अल्लाह इस के इनाम से किसी न किसी सूरत जरुर देता है।

पर एक ख्याल मन में ये भी आता है कि हमे अपना ख्याल खुद रखना चाहिए। उनके लिए जो हमसे मोहब्बत करते हैं, हमे देख देख कर जीते हैं।

पर सच्चाई से हम मुंह नहीं मोड़ सकते और सच ये है हम जो कुछ झेलते हैं शायद बहुत पहले कहीं ऊपर लिखा जा चुका होता है। यही तक़दीर है फिर जिंदगी से कैसा शिकवा ?


सब कुछ लिखा और कई बार पड़ा फिर मन में ख्याल आया कि ये सब इतना आसान है ?

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